परिचय

रानी लक्ष्मीबाई

(जन्म: 19 नवंबर 1828 – मृत्यु: 18 जून 1858), जिन्हें झांसी की रानी के नाम से जाना जाता है, भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम (1857) की एक प्रमुख नायिका थीं। उन्होंने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ साहस, नेतृत्व और देशभक्ति का अभूतपूर्व प्रदर्शन किया। 1857 की क्रांति, जिसे सिपाही विद्रोह या प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के रूप में भी जाना जाता है, भारतीय इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ था, और रानी लक्ष्मीबाई ने इसमें एक प्रेरणादायक भूमिका निभाई।

रानी लक्ष्मीबाई का प्रारंभिक जीवन

जन्म और बचपन

रानी लक्ष्मीबाई का जन्म 19 नवंबर 1828 को वाराणसी, उत्तर प्रदेश में हुआ था। उनका मूल नाम मणिकर्णिका तांबे था, और प्यार से उन्हें मनु कहा जाता था। उनके पिता मोरोपंत तांबे मराठा दरबार में एक सलाहकार थे। मणिकर्णिका का पालन-पोषण मराठा परंपराओं के अनुसार हुआ, जिसमें उन्हें घुड़सवारी, तलवारबाजी और शस्त्र विद्या में प्रशिक्षण दिया गया।

विवाह और झांसी की रानी

1842 में, मणिकर्णिका का विवाह झांसी के मराठा शासक महाराजा गंगाधर राव नेवलकर से हुआ, और उनका नाम बदलकर लक्ष्मीबाई रखा गया। 1851 में उनके पुत्र की मृत्यु के बाद, 1853 में एक बच्चे को गोद लिया गया, जिसका नाम दामोदर राव रखा गया। महाराजा की मृत्यु के बाद, ब्रिटिश हड़प नीति के तहत झांसी को हथियाने का प्रयास किया, जिसका रानी ने विरोध किया।

"मैं अपनी झांसी किसी को नहीं दूँगी।" — रानी लक्ष्मीबाई

1857 की क्रांति का पृष्ठभूमि

कारण

  • हड़प नीति: भारतीय रियासतों को हड़पने की ब्रिटिश नीति।
  • सांस्कृतिक हस्तक्षेप: भारतीय परंपराओं में ब्रिटिश हस्तक्षेप।
  • एनफील्ड राइफल: कारतूस में चर्बी की अफवाह।

क्रांति का प्रारंभ

10 मई 1857 को मेरठ में सिपाहियों ने विद्रोह शुरू किया, जो दिल्ली, कानपुर, लखनऊ और झांसी तक फैल गया।

रानी लक्ष्मीबाई का योगदान

झांसी की रक्षा

1858 में, रानी ने झांसी के किले की रक्षा के लिए ब्रिटिश सेना का डटकर मुकाबला किया।

काल्पी और ग्वालियर

झांसी के पतन के बाद, रानी ने तात्या टोपे के साथ मिलकर काल्पी और ग्वालियर की लड़ाई लड़ी।

बलिदान

18 जून 1858 को ग्वालियर में रानी लक्ष्मीबाई ने वीरगति प्राप्त की।

"खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी।" — सुभद्रा कुमारी चौहान*झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के बलिदान दिवस पर श्रद्धांजलि* सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटी तानी थी, बूढ़े भारत में भी आई फिर से नयी जवानी थी, गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी, दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी। चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी, बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥ कानपूर के नाना की, मुँहबोली बहन छबीली थी, लक्ष्मीबाई नाम, पिता की वह संतान अकेली थी, नाना के सँग पढ़ती थी वह, नाना के सँग खेली थी, बरछी, ढाल, कृपाण, कटारी उसकी यही सहेली थी। वीर शिवाजी की गाथायें उसको याद ज़बानी थी, बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥ विज्ञापन लक्ष्मी थी या दुर्गा थी वह स्वयं वीरता की अवतार, देख मराठे पुलकित होते उसकी तलवारों के वार, नकली युद्ध-व्यूह की रचना और खेलना खूब शिकार, सैन्य घेरना, दुर्ग तोड़ना ये थे उसके प्रिय खिलवाड़। महाराष्ट्र-कुल-देवी उसकी भी आराध्य भवानी थी, बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥ हुई वीरता की वैभव के साथ सगाई झाँसी में, ब्याह हुआ रानी बन आई लक्ष्मीबाई झाँसी में, राजमहल में बजी बधाई खुशियाँ छाई झाँसी में, सुघट बुंदेलों की विरुदावलि-सी वह आयी थी झांसी में। चित्रा ने अर्जुन को पाया, शिव को मिली भवानी थी, बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥ उदित हुआ सौभाग्य, मुदित महलों में उजियारी छाई, किंतु कालगति चुपके-चुपके काली घटा घेर लाई, तीर चलाने वाले कर में उसे चूड़ियाँ कब भाई, रानी विधवा हुई, हाय! विधि को भी नहीं दया आई। निसंतान मरे राजाजी रानी शोक-समानी थी, बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥ बुझा दीप झाँसी का तब डलहौज़ी मन में हरषाया, राज्य हड़प करने का उसने यह अच्छा अवसर पाया, फ़ौरन फौजें भेज दुर्ग पर अपना झंडा फहराया, लावारिस का वारिस बनकर ब्रिटिश राज्य झाँसी आया। अश्रुपूर्ण रानी ने देखा झाँसी हुई बिरानी थी, बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥ अनुनय विनय नहीं सुनती है, विकट शासकों की माया, व्यापारी बन दया चाहता था जब यह भारत आया, डलहौज़ी ने पैर पसारे, अब तो पलट गई काया, राजाओं नवाबों को भी उसने पैरों ठुकराया। रानी दासी बनी, बनी यह दासी अब महरानी थी, बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥ छिनी राजधानी दिल्ली की, लखनऊ छीना बातों-बात, कैद पेशवा था बिठूर में, हुआ नागपुर का भी घात, उदयपुर, तंजौर, सतारा,कर्नाटक की कौन बिसात? जब कि सिंध, पंजाब ब्रह्म पर अभी हुआ था वज्र-निपात। बंगाल, मद्रास आदि की भी तो वही कहानी थी, बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥ रानी रोयीं रनिवासों में, बेगम ग़म से थीं बेज़ार, उनके गहने कपड़े बिकते थे कलकत्ते के बाज़ार, सरे आम नीलाम छापते थे अंग्रेज़ों के अखबार, 'नागपुर के ज़ेवर ले लो लखनऊ के लो नौलखा हार'। यों परदे की इज़्ज़त परदेशी के हाथ बिकानी थी, बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥ कुटियों में भी विषम वेदना, महलों में आहत अपमान, वीर सैनिकों के मन में था अपने पुरखों का अभिमान, नाना धुंधूपंत पेशवा जुटा रहा था सब सामान, बहिन छबीली ने रण-चण्डी का कर दिया प्रकट आहवान। हुआ यज्ञ प्रारम्भ उन्हें तो सोई ज्योति जगानी थी, बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥ महलों ने दी आग, झोपड़ी ने ज्वाला सुलगाई थी, यह स्वतंत्रता की चिनगारी अंतरतम से आई थी, झाँसी चेती, दिल्ली चेती, लखनऊ लपटें छाई थी, मेरठ, कानपुर,पटना ने भारी धूम मचाई थी, जबलपुर, कोल्हापुर में भी कुछ हलचल उकसानी थी, बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥ इस स्वतंत्रता महायज्ञ में कई वीरवर आए काम, नाना धुंधूपंत, ताँतिया, चतुर अज़ीमुल्ला सरनाम, अहमदशाह मौलवी, ठाकुर कुँवरसिंह सैनिक अभिराम, भारत के इतिहास गगन में अमर रहेंगे जिनके नाम। लेकिन आज जुर्म कहलाती उनकी जो कुरबानी थी, बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, खूब मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थी।

रानी लक्ष्मीबाई की विरासत

रानी लक्ष्मीबाई की वीरता आज भी भारतीयों को प्रेरित करती है। उनके जीवन पर कई कविताएँ, फिल्में और स्मारक बनाए गए हैं। वे नारी शक्ति का प्रतीक हैं और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की अमर नायिका के रूप में जानी जाती हैं।